उसके हाथों से छूटकर
खूब गिरते हैं बर्तन
कभी आँगन तो कभी किचिन में
फर्श पर गिरने के बाद
हर बर्तन की
अपनी एक खास आवाज
और फिर उसकी खिलखिलाहट
शुरू-शुरू में बड़ी झल्लाहट होती थी
फिर धीरे-धीरे
मैं भी अभ्यस्त हो गया
इन आवाजों का
अभ्यस्त ही नहीं
बल्कि सिद्ध हो गया ..
अब तो हालत यह है
कि वहाँ से आती है कोई आवाज
और यहाँ किताब पढ़ते-पढ़ते
मैं उस बर्तन का नाम बता देता हूँ
धीरे-धीरे ही सही
पर अब जान गया
इसमें कुछ भी अजीब नहीं
हमारे हाथों से भी तो छूटती हैं चीजें
कभी कलम
कभी चश्मा
तो कभी कोई किताब
अब देखो न
कविता लिखते हुए ही
छूट जाते हैं
कितने ही जरूरी
शब्द, प्रतीक, बिंब, मिथक और विचार
छूट जाता है कभी वक्त
तो कभी अर्थ छूट जाता है
कभी-कभी तो हद हो जाती है
कविता लिखते हुए
हाथों से फिसल जाती है
पूरी की पूरी कविता
जैसे एक दिन किचिन में
उसके हाथों से फिसल कर गिरा था
पानी से भरा हुआ
मिट्टी का घड़ा
और फिर
कई कई दिनों तक
मन में बनी रहती है
छूटी हुई कविता की अनुगूँज ।